ओह मन पतित ! न कर तू निस्वर्ग की कामना
वास्तविक बन, है ये सत्य, नहीं मन का मेल कही
छोड़ अब ये हठ धारणा !
जो मिला है वोही है तेरा
कर आलिंगन उसे, मान उसे बस वोही, साधना ||
बन तू निष्काम, कर जीवन आराधना,
संतोष बन, कर स्थिर ये मन,
क्यो चला तू बिन पथ,
चाह वो एक, बस एक, जो दे सके जीने का एक कारण,
मैं भी ढूड़ता, बस वो आज कल,
जीने का निष्काम, एकल, सिर्फ हो जो मेरा,
मेरे जीने का एक कारण !
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